तन्हाई के लेखक

निर्मल वर्मा की कविताओं में अकेलेपन और तन्हाई की झलक देखने को मिलती है। उनके दृष्टिकोण में अकेलापन दुख का नही बल्कि आनंद का प्रतीक था। उनके लेखन मे सेहजता और गंभीरता का अजीब संगम देखने को मिलता है जो उनके लेखन को दूसरों से अलग करता है।
हिंदी साहित्य के सितारे निर्मल वर्मा; स्त्रोत: भारतकोश

हिंदी साहित्य के सितारे निर्मल वर्मा; स्त्रोत: भारतकोश

दुनिया की इस भीड़ में हर शख्स अकेला है, लेकिन भीड़ के शोर में किसी एक की आवाज सुनना नामुमकिन है। हां, अगर वह नेता हैं तो अलग बात है, यह बात भी अलग है की हर नेता सुनने लायक नहीं होता। बहुत समय तक भटकने के बाद हमें ऐसा एक लेखक मिला जो भीड़ में छुपे उस अकेलेपन की आवाज़ बना जो बरसों से अनसुनी थी। लेखक का नाम था निर्मल वर्मा।

उनका नाम साहित्य के क्षेत्र में बहुत ऊंचे स्थान पर आता है। हालांकि उनका नाम रातों-रात इतना बड़ा नहीं हुआ था, इसके पीछे उनके संघर्ष और अनुभव का खास योगदान है। यह कहना अतिशियोक्ति कदापि नहीं होगा की उनके परिवार पर माँ सरस्वती की विशेष कृपा थी। केवल वह ही नहीं बल्कि उनके भाई भी अपने समय के महानतम कलाकारों की श्रेणी में शुमार हैं।

निर्मल वर्मा को मुख्यतः उनके नई कहानी आंदोलन के लिए जाना जाता है जो उन्होंने मोहन राकेश, भीष्म साहनी, कमलेश्वर, अमरकांत, राजेंद्र यादव और अन्य के साथ मिलकर शुरू किया था। उनके द्वारा लिखित लघु कथा 'परिंदे' (1959) को इस नयी कहानी आंदोलन में सबसे अग्रणी रचना के तौर पर देखा जाता है।

अकेलेपन के कवि के रूप में जाने जाने वाले, वर्मा जी के लेखन भ्रम की एक जाल की तरह लगते हैं जो अकेलेपन और उदासी की भावनाओं से हमारा सामना कुछ यूँ करवाते हैं जैसे कि वह हमारे लिए लिख रहे थे। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उनकी रचनाओं में एक अजीब सा आनंद छिपा है, जिसकी गवाही वर्मा जी को पढ़ने वाले सभी लोगों देते है जिन्होंने इसे महसूस किया है।

उनके कार्यों में स्वयं से बात करने वाले पात्रों द्वारा लंबे मोनोलॉग शामिल हैं। लेकिन इस एकांत और अकेलेपन में उनके लेखन की सुंदरता है जो हमें एकांत से प्यार करने पर मजबूर कर देती है।

देखिए, अक्सर कहा जाता है कि हर आदमी अकेला मरता है। मैं यह नहीं मानती। वह उन सब लोगों के साथ मरता है, जो उसके भीतर थे, जिनसे वह लड़ता था या प्रेम करता था। वह अपने भीतर पूरी एक दुनिया ले कर जाता है। इसीलिए हमें दूसरों के मरने पर जो दुख होता है, वह थोड़ा-बहुत स्वार्थी किस्म का दुख है, क्योंकि हमें लगता है कि इसके साथ हमारा एक हिस्सा भी हमेशा के लिए खत्म हो गया है। - धूप का एक टुकड़ा

उनकी लेखन शैली न केवल अद्भुत और अविश्वसनीय थी बल्कि पूरी तरह से नई भी थी। यही कारण था कि कुमार साहनी ने उनकी रचना माया दर्पण पर आधारित फिल्म बनाई। इस फिल्म ने वर्मा जी के नाम से पहचान बनाई। कहानी और साहनी जी का निर्देशन इतना शानदार था कि फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का पुरस्कार जीता।

शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में अपने अतुलनीय योगदान के कारण वे शीघ्र ही भारत के चमकते सितारे बन गए। उनके प्रयासों की सराहना करने के लिए उन्हें ज्ञानपीठ और पद्म भूषण जैसे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। बीबीसी द्वारा प्रसारित एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म में भी उनके जीवन को अमर कर दिया गया है।

बड़ी ही सरलता से बड़े ही परिष्कृत विचारों को अपने लेखन में स्वरुप देने वाले वर्मा जी की तारीफ़ किन शब्दों में करें यह सोचना सही में बेहद कठिन काम है। जीवन के अंतिम क्षणों में फेफड़ों की बीमारी से जूझने के बाद 76 वर्ष की आयु में 25 अक्टूबर 2005 को दिल्ली में उनका निधन हो गया। लेकिन वे अपनी रचनाओं से आज भी अमर हैं और इसमें कोई दो राय नहीं है कि जब तक हिन्दी साहित्य है, तब तक वे ऐसे ही रहेंगे।

निर्मल वर्मा को उनकी मृत्यु के समय औपचारिक रूप से भारत सरकार द्वारा नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था। जो अपने आप में उनकी उपलब्धियों का प्रमाण है।

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