मुहर्रम की अनोखी दास्ताँ
इतिहास गवाह है की अन्याय के खिलाफ लड़ने वालों का नाम सदा सदा के लिए इतिहास में अमर हो जाता है। ऐसा ही एक अमर नाम है बादशाह हुसैन जिनकी याद में हर साल मुहर्रम के दिन ताजिया निकाला जाता है।
मुहर्रम के पीछे शहादत की एक अनोखी दास्ताँ छुपी है, एक ऐसी दास्ताँ जिसे याद करके आज भी हर मुस्लिम की आँखों में आँसू आ जाते है। यह दास्ताँ कई सौ वर्षों पुरानी है, जब 72 (शिया मत के अनुसार 123, यानी 72 पुरुष और महिलाएं और 51 बच्चे शामिल थे) लोगों को शहीद कर दिया गया था जिनमें से एक पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन थे।
इस्लाम में, खलीफा सिर्फ पद नहीं था बल्कि एक उच्च सम्मानित ओहदा था जिसे हर कोई पाना चाहता था, कुछ ऐसी ही आकांक्षाएँ यजीद की भी थी। यज़ीद एक शासक था जो पूरे अरब पर राज करना चाहता था, वह जानता था की यह तभी मुमकिन है जब वह खलीफ़ा बन जाए। उन्होंने खुद को शासक खलीफ़ा घोषित भी कर दिया लेकिन वह पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को अपने लिए सबसे बड़ा खतरा समझता था।
बादशाह हुसैन को परेशान करने के लिए यजीद ने मदीना में अत्याचार बहुत अधिक बढ़ा दिए, जिसके बाद बादशाह हुसैन ने अपने छोटे से काफ़िले के साथ मदीना से ईराक के शहर कूफ़ा जाने का फैसला किया परन्तु रास्ते में ही यजीद की सेना ने बादशाह हुसैन के काफ़िले को रोक लिया।
जिस स्थान पर उनके काफ़िले को रोका गया वह कर्बला (इराक की राजधानी बगदाद से लगभग 100 किलोमीटर उत्तर पूर्व में एक छोटा सा शहर) का रेगिस्तान था, जहां पानी का केवल एक स्रोत था - फरात नदी। लेकिन उन्हें और उनके काफिले को पानी पीने की इजाज़त नहीं थी, इसलिए बादशाह हुसैन ने यज़ीद की सेना से लड़ने का फैसला किया। यह इतिहास के सबसे अन्यायपूर्ण युद्धों में से एक था क्योंकि यज़ीद के पास एक तरफ हजारों सैनिकों की सेना थी और दूसरी तरफ केवल 72 लोग थे। लेकिन इसके बावजूद यह युद्ध 10 दिनों तक चला। 10 दिनों तक बादशाह हुसैन यज़ीद की सेना का डटकर सामना करते रहे। 10वें दिन उनके काफ़िले में एकमात्र बादशाह हुसैन ही बचे थे।
बहुत कोशिशों के बाद भी जब यज़ीद की सेना उसे मार नहीं पाई तो उसने धोखे का सहारा लिया। जब बादशाह हुसैन नमाज़ अदा कर रहे थे तो उनके साथ विश्वासघात किया गया और उन्हें शहीद कर दिया गया। लेकिन इतना सब कुछ करने के बाद भी जिस मकसद के लिए यजीद ने यह सब किया वह कभी पूरा नहीं हो पाया। वह बादशाह हुसैन को ख़त्म कर पुरे अरब में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता था लेकिन उनकी शहीदी के बाद उनका वर्चस्व ना केवल अरब में बल्कि पूरी दुनिया में सदा सदा के लिए स्थापित हो गया।
आज भी मुहर्रम के 10वें दिन उनकी याद में ताज़िया निकाला जाता है, ज्यादातर शिया मुसलमान इस ताजिया को निकालते हैं। जिसमें महिलाएं रोती हैं और पुरुष खुद को मारकर 'या हुसैन, हम न हुए' का जाप करते हैं। उनकी शहादत भले ही कई सौ साल पहले हुई हो, लेकिन उनका दुख हर मुसलमान की आंखों में इस दिन दिखाई देता है। 10 दिन तक बादशाह हुसैन भूखे और प्यासे थे इसलिए उनकी याद में इस दिन जल और शर्बत का वितरण किया जाता है। भारत के लगभग हर बड़े शहर में इस दिन ताजिया निकाला जाता है। ना केवल पुरुष बल्कि महिलाएँ और बच्चे भी बड़ी तादाद में इनमें भाग लेते है।