वो हरियाणा की छोरी है, एक बार जो ठान लिया सो ठान लिया

उनका जीवन संघर्षों की यात्रा भी है और क़ामयाबी की मिसाल भी। भारत के लिए पैराओलिंपिक में पहला मेडल लाने वाली दीपा मलिक ने मौत को एक बार नहीं बल्कि तीन बार हराया। जब जब ज़िन्दगी ने उनको चुनौती दी उन्होंने ना केवल चुनौती को स्वीकारा बल्कि जीता भी।
दीपा मलिक को पद्म श्री पुरस्कार प्रदान करते हुए श्री प्रणब मुखर्जी की तस्वीर; स्रोत: राष्ट्रपति सचिवालय (GODL-भारत)

दीपा मलिक को पद्म श्री पुरस्कार प्रदान करते हुए श्री प्रणब मुखर्जी की तस्वीर; स्रोत: राष्ट्रपति सचिवालय (GODL-भारत)

'लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।' यह कविता सभी ने सुनी होंगी लेकिन देश की एक बेटी ऐसी भी है जिसने यह कविता केवल सुनी नहीं बल्कि जियी भी है। हरियाणा की बेटी और पूरे देश का गर्व दीपा मलिक।

दीपा मलिक हमेशा विकलांग नहीं थी इसलिए उसके लिए और भी मुश्किल था। वर्ष 1999 में उनकी स्पाइनल कॉर्ड में ट्यूमर हो गया। उनके पति भारतीय सेना में जवान थे और उस समय देश के लिए सीमा पर कारगिल युद्ध लड़ रहे थे।

दीपा की हालत बहुत गंभीर थी और तत्काल ऑपरेशन की जरूरत थी क्योंकि उस समय थोड़ी सी लापरवाही से उनकी जान जा सकती थी। उनके शरीर से ट्यूमर को अलग करने के लिए उन्हें तीन ऑपरेशन से गुजरना पड़ा जिसमें उन्हें 183 टांके लगे। ऑपरेशन के 25 दिन बाद तक वह कोमा में थी, वह होश में तो आ गई लेकिन दीपा का आधा शरीर जीवन भर के लिए लकवाग्रस्त हो गया।

दीपा ने कभी नहीं सोचा था की ज़िन्दगी उन्हें यह दिन भी दिखाएगी। खेलों में दीपा की अधिक रूचि नहीं थी लेकिन बाइकिंग उनका जुनून था। यदि उनकी जगह पर उस वक़्त कोई भी और होता तो हालातों के सामने हार मान लेता लेकिन वो लड़ना चाहती थी, अपने लिए और अपने सपनों के लिए। उन्होंने बाइकिंग करने की ठानी, पर उनके जज़्बे ने उन्हें ओलंपिक्स तक पहुंचा दिया।

वह रोज़ स्विमिंग किया करती थी। एक दिन उन्हें स्विमिंग करते हुए स्पोर्ट्स अथॉरिटी के ऑफिसर ने देखा। वह पहली नज़र में ही उनकी काबिलियत को पहचान गए। उन्होंने दीपा को खेलों में भाग लेने का न्योता दिया।

अवसर स्वयं उसके सामने हाथ फैलाए खड़ा था, उसके आगे सब कुछ उसकी बुद्धि पर निर्भर था। उसने अपनी समझ दिखाते हुए निमंत्रण स्वीकार कर लिया और यहाँ से उनका नया सफर शुरू हुआ, इसके बाद उन्होंने कभी पलट कर नहीं देखा।

उस समय उनकी उम्र 35 वर्ष थी। एक खिलाड़ी के रूप में उनका जीवन उस उम्र से शुरू हुआ जिस उम्र में खिलाड़ी खेल से संन्यास ले लेते हैं लेकिन उन्होंने खेलों में जो कर दिखाया वह बड़े बड़े धुरंधर भी हासिल नहीं कर पाते।

वह 2016 पैरा ओलंपिक में भारत के लिए पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं। शॉट-पुट में वह दूसरे स्थान पर आई और रजत पदक हासिल करने में कामयाब रही।

दीपा मलिक ने खेलों में बहुत बड़ा मुकाम हासिल किया था लेकिन बाइक चलाने के प्रति उनका प्यार उनके दिल से कम नहीं हुआ। उसके लिए एक विशेष चार पहिया बाइक बनाई गई थी और अब तक वह हिमालय की पहाड़ियों, शिमला, लेह, लद्दाख आदि क्षेत्रों में बाइकिंग कर चुकी है। वह फेडरेशन ऑफ मोटर स्पोर्ट्स क्लब ऑफ इंडिया (F.M.S.C.I.) की सदस्य भी है। उनके नाम कई ख़िताब भी है।

उनके इसी जज़्बे को सलाम करने के लिए उन्हें राष्ट्रपति रोल मॉडल पुरस्कार (2014), अर्जुन पुरस्कार (2012), महाराष्ट्र छत्रपति पुरस्कार (2009-10), हरियाणा कर्मभूमि पुरस्कार (2008), स्वावलंबन पुरस्कार महाराष्ट्र (2006), पद्म श्री पुरस्कार (2017), प्रथम महिला पुरस्कार - महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार (2019) इत्यादि से नवाज़ा जा चुका है।

उनकी सफलता ने साबित कर दिया है कि विकलांगता समाज पर कोई कलंक या बोझ नहीं है, न ही विकलांग लोगों को किसी की दया की जरूरत है, उन्हें बस थोड़ा सा प्रोत्साहन और समर्थन चाहिए। दीपा मलिक केवल विकलांगो के लिए नहीं बल्कि सामान्य लोगों के लिए भी बहुत बड़ी प्रेरणा है जो हमेशा ज़िन्दगी को अलग अलग वजहों से कोसते रहते है और सोचते है की ज़िन्दगी ने उन्हें कुछ नहीं दिया लेकिन कभी अपने सपनों को पूरा करने के लिए लड़ते नहीं है, वो ज़िद्द और जुनून नहीं दिखाते जो दीपा ने दिखाया।

28 likes

 
Share your Thoughts
Let us know what you think of the story - we appreciate your feedback. 😊
28 Share