नाम से राजा, काम से राजा

एक योद्धा जिसकी न कोई सेना थी और न ही हथियार, फिर भी वो सबसे मुश्किल लड़ाई जीत गया। एक लड़ाई समाज की कुरीतियों के खिलाफ, एक लड़ाई समाज की कुप्रथाओं के खिलाफ और एक लड़ाई पूरे समाज के खिलाफ।
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राजा राम मोहन रॉय;  स्रोत: विकिपीडिया कॉमन्स

क्या आप जानते एक समय ऐसा था जब महिलाएं अपना पूरा जीवन अपने घर की 4 दीवारी में गुज़ार देती थी। 7 से 10 वर्ष की उम्र में उनका विवाह हो जाता था और यदि किसी कारण वश उसके पति की मृत्यु हो जाती थी तो उन्हें उनके पति के शव के साथ ही जला दिया जाता था।

अगर आप सोच रहे की यह प्राचीन काल की बात है तो आप गलत सोच रहे है। यह 18वी शताब्दी की महिला की स्थिति है।पर ये कहानी उन महिलाओ की नहीं है। ये कहानी है एक सुपर हीरो की जिसने उस समय महिलाओ के हक के लिए लड़ाई लडी, जब खुद महिलाएं उनके विरोध में खड़ी थी।

किसी भी प्रथा को एक दिन में नहीं मिटाया जा सकता, बाल विवाह, सतीप्रथा, जाति प्रथा जैसी कुप्रथाओ को मिटाना भी कोई एक दिन का काम नहीं था। राजा राम मोहन रॉय और उनके जैसे कितने ही लोगों ने अपना पूरा जीवन इन कुप्रथाओं से लड़ते हुए गुज़ार दिया।

राजा राम मोहन रॉय एक अंधे समाज में आँखों के साथ पैदा हुए थे। वो बचपन से ही अपने आस पास के समाज (बंगाल) की कुरीतियों और कुप्रथाओ की आलोचना करते थे। आप उनके बारे में पढ़ कर गर्व महसूस कर रहे होंगे लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी की उनके माता पिता के लिए शर्मिंदगी का एक कारण था।

राजा राम मोहन रॉय की असली लड़ाई तब शुरू हुई जब उनकी भाभी इस सती प्रथा का शिकार हो गई। इस हादसे के बाद जैसे सब कुछ बदल गया। राजा राम मोहन रॉय उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी कर रहे थे लेकिन उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और यहाँ से शुरू हुआ आम से महान तक का सफ़र।

सती प्रथा के खिलाफ लड़ते हुए उन्हें सबसे बड़ी सफलता तब मिली जब उन्होंने गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक की मदद से सती होने की प्रथा को कानूनी अपराध घोषित करवाया। इसके बाद तो जैसे राजा राम मोहन रॉय ने समाज को सुधारने का बेड़ा अपना कंधों पर ले लिया। उनके शब्दों में -

प्रत्येक स्त्री को पुरूषों की तरह अधिकार प्राप्त हो, क्योंकि स्त्री ही पुरूष की जननी है। हमें हर हाल में स्त्री का सम्मान करना चाहिए।

बाल विवाह और सती प्रथा के विरोध के साथ साथ उन्होंने महिलाओं के हक के लिए भी आवाज़ उठाई। विधवा पुनर्विवाह, जमींन में महिलाओ का हिस्सा, बहुविवाह का विरोध जैसी कई ऐसी आवाज़ों को उन्होंने उठाया जो उस समय का कोई आम व्यक्ति सोच भी नहीं सकता था। उन्होंने पूरे समाज से गुहार की -

अन्धविश्वास के अँधेरे से बाहर निकलो।

वह केवल यहीं नहीं रुके । उन्होंने हिंदू धर्म को सुधारने और कुरीतियों को दूर करने के लिए, ब्रह्म समाज की स्थापना की। उनके जितने चाहने वाले थे उनसे कहीं अधिक संख्या में उनके विरोधी थे। लोगों की सोच में वह हिंदू धर्म के विरोधी थी क्योंकि वह लोग हिंदू धर्म को इन कुरीतियों से अलग करके देख ही नहीं सकते थे। ऐसी अफवाहों के जवाब मे राजा राम मोहन रॉय ने कहा -

"मैं हिन्दू धर्म का नहीं बल्कि उसमें व्याप्त कुरूतियों का विरोध करता हूँ।"

एक कहावत है, “जल में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं किया जाता” लेकिन राजा राम मोहन रॉय तो जिस ब्राह्मण धर्म में पैदा हुए उसे ही सुधारने निकल पड़े। राजा राम मोहन रॉय की सोच की प्रशंसा पर अगर एक किताब भी लिखी जाए तो शायद कम होगी। शायद यही कारण था जिसकी वजह से मुग़ल सम्राट अकबर द्वितीय ने उन्हें राजा की उपाधि दी।

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