मस्जिद में देवी देवताओं की मूर्तियाँ
कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद को 27 हिन्दू और जैन मंदिरों के मलबे से बनाया गया इसके ऐतिहासिक साक्ष्य भी मौजूद है लेकिन क्या इससे इस विरासत का मूल्य कम हो जाता है?
राजपूत राजा पृथ्वी राज चौहान की हार के बाद, मोहम्मद गोरी ने अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का शासक नियुक्त किया। दिल्ली की गद्दी पर बैठे नए सुल्तान ऐबक ने दिल्ली के महरौली इलाके में कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण करवाया, जिसका विस्तार दिल्ली सल्तनत के विभिन्न शासकों ने किया। यह मस्जिद कुतुब मीनार परिसर में मौजूद है जो अब पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित क्षेत्र है।
दिल्ली के महरौली इलाके में स्थित कुतुब मीनार दुनिया के कुछ चुनिंदा अजूबों में से एक रहा है। दिल्ली सल्तनत की खूबसूरत विरासत को देखने के लिए हर दिन हजारों पर्यटक इस परिसर में आते हैं। इस परिसर में कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद दिल्ली सल्तनत के शासकों द्वारा बनाई गई पहली मस्जिद है लेकिन यह मस्जिद सिर्फ इसी वजह से लोकप्रिय नहीं है, इसके पीछे एक और कारण मौजूद है।
कुतुब मीनार के प्रवेश द्वार पर एक शिलालेख में कहा गया है कि यह मस्जिद वहां बनाई गई थी, जहां 27 हिंदू और जैन मंदिरों का मलबा था। आज भी इस मस्जिद की छत और दीवारों पर हिंदू देवी-देवताओं और जैन वास्तुकला के अवशेष मौजूद हैं। इन अवशेषों से मालूम होता है कि यह मंदिर सदियों पुराने रहे होंगे।
भारत में मुस्लिम शासकों द्वारा मंदिरों का विध्वंस और उन स्थलों पर मस्जिदों का निर्माण लंबे समय से विवाद का विषय रहा है। कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद भी इससे अछूती नहीं है। कई हिंदू संगठनों का कहना है कि यह एक मंदिर है जहां पूजा करनी चाहिए, यहां तक कि इसके लिए कोर्ट में याचिका भी दायर की गई।
यह एक ऐतिहासिक धरोहर है और जब किसी ऐतिहासिक धरोहर को पुरातत्व विभाग के संरक्षण में लिया जाता है, तो उसके बाद वो प्राचीन इमारतें धार्मिक उपयोग में नहीं रहती, वहां पूजा अर्चना करना प्रतिबंधित हो जाता है। जिस कारण यहां कई वर्षों से नमाज़ अदा करने की भी अनुमति नहीं दी गई है, इसलिए यहां पूजा करने का कोई मतलब नहीं है।
यह आश्चर्य की बात थी कि यह विवाद एक ऐतिहासिक स्थल पर उत्पन्न हुआ था, हालांकि यह भारत में नया नहीं है, अक्सर ताजमहल और जामा मस्जिद को लेकर भी इसी तरह के विवाद उत्पन्न हुए हैं। पुरातत्व और ऐतिहासिक विरासत के मूल्य को जानने वाले विभिन्न विद्वानों का विचार है कि हमारे पास अतीत की जो भी विरासत है, हमें उसे वैसे ही रहने देना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियां देख सकें और समझ सकें कि इतिहास कैसा था। इतिहास से जुड़े विरासत के हर खजाने को जीवित रखना हमारा काम है और इसके लिए बेहद आवश्यक है इन विरासतों को धर्म के चश्मे से ना देखा जाए।