तांगेवाले से मसाला किंग बनने की कहानी
जी हां, भारतीयता की एक पहचान यहां के मसालें भी ह|दुनिया में ऐसा दूसरा देश नही, जहां पर मसालोंकीइतनी वैराइटी देखी और इस्तेमाल की जाती है, जितनी भारत में हैं। यह बात भी सही है, जब बात मसालों की होती है, तो वह भारत तक सीमित न होकर एशिया के बहुत-से दूसरे देशों तक भी फैल जाती है। इसका ज़िक्र वहां तक भी पहुंच जाती है, जब भारतवर्ष ने एक भी विभाजन का दंश नही झेला था। भारत के सन 1947 के विभाजन ने जहाँ एक तरफ बहुत-सी कड़वी यादों से लाखों लोगों के दिलों को छलनी कर दिया तो उसी त्रासदी की एक अच्छी देन महाशय धरमपाल गुलाटी जी भी हैं।
कहते इंसान में अगर सच्ची लगन और जीवन में कुछ बड़ा करने का हुनर मौजूद हो तो उसके रास्तें में चाहे कितनी भी रूकावटें आ जाऐ, वो उन सबको पार करके एक दिन अपनी मंजिल को ज़रूर पा लेता है। एक ऐसी कही प्रेरणा से भरी कहानी है, महाशय धरमपाल गुलाटी जी की कहानी। जिन्होने अपने महाशय दी हट्टी यानी "एम.डी.एच." को देश-विदेश में मशहूर मसालों की दुनिया में एक अलग पहचान दी।
इनकीकहानी शुरू होती है, सन 1923 से जब सियालकोट, पाकिस्तान में पिता चुन्नी लाल और माता चनन देवी के घर में धरमपाल जी का जन्म हुआ। उनके परिवार में माता-पिता, दो भाई और पांच बहनें थी। उनके पिता एक कारोबारी थे। उनकी दुकान सियालकोट में सन 1919 के समय में खोली गई, मसालों की एक छोटी-सी मसाला कंपनी थी। एक दुकान इतनी-सी जगह पर खोली गई अपनी कंपनी में वे हाथ से पीस कर तैयार किए मसालें बेचा करते थे। उनकी कंपनी का नाम था, महाश्य दी हट्टी प्राइवेट लिमिटेड. देघी मिर्च वाले।
धरमपाल गुलाटी जी का मन शुरू से ही पढ़ाई में नही था, उन्होने बस पांचवीं तक ही पढ़ाई की। दस साल की छोटी-सी आयु में ही वे अपने पिता का हाथ उनके कारोबार में बंटाने लगे थे। पढ़ाई छोड़ने के बाद उन्होने कई तरह के कारोबार में हाथ आजमाए, साथ ही छोटी-मोटी नौकरियां भी की। उन्होने भले ही पढ़ाई नही की, लेकिन व्यापार के बारे में अपनी समझ को समय के साथ इतना परिपक्व कर लिया कि आख़िरकार उ नके पैर व्यापार में जमने लगें।
लेकिन सन 1947 के बंटवारें ने बहुत से लोगों की तरह इनकी दुनिया को भी पूरी तरह से उजाड़ दिया। उन्हें अपने पूरे परिवार के साथ सियालकोट छोड़ कर अमृतसर में एक रिफ्यूजी कैंप में अपने दिन ग़ुजारने पड़ें। उस समय उन्होने काम की तलाश में अपने जीजा के साथ दिल्ली का रूख़ किया। यहां भी उनके लिए ज़िंदगी आसान नही थी। अमृतसर से चलते समय उनके पिता ने उन्हें पन्द्रह सौं रूपयें दिए थे, उसी पैसों से उन्होने दिल्ली में एक तांगा ख़रीदा। वे उस तांगे पर कनॉट प्लेस से करोल बाग तक सवारियां लाते ले जाते थे। लेकिन यह काम उन्हें रास नही आया, और उन्होने करोल बाग में एक छोटी-सी झोपड़ी में अपने पुराने पुश्तैनी काम की, फिर से शुरूआत की, यह 1948 का समय था, व्यापार की अच्छी समझ ने अपना कमाल दिखाया और व्यापार चल निकला। व्यापार आगे बढ़ाते हुए। सन 1953 में उन्होने करोल बाग़ में एक दुकान किराए पर ले ली। उसके एक साल के बाद, यानी सन 1954 में उन्होने भारत के पहले आधुनिक मसाला स्टोर की नींव रखी, जिसका नाम था, रूपक स्टोर्स।
बाद में उन्होने रूपक स्टोर्स का काम अपने भाई सतपाल गुलाटी जी को सौंप दिया। सन 1959 में उन्होने अपनी मसाला फैक्टरी की नींव रखी, जिसका नाम एम.डी.एच (महाश्य दी हट्टी) लिमिटेड रखा गया। उनकी मेहनत और व्यापार की अच्छी समझ के दम पर काम दिन दुनी रात चौगनी तरक्की करने लगा। जल्दी ही एमडीएच के मसालें भारत ही नही स्विट्ज़रलैंडस ,अमेरिका, जापान, कनाडा, यूरोप साउथ ईस्ट एशिया यू.ए.ई, साउदी अरब के साथ सौं से भी अधिक देशों में निर्यात किए जाने लगे। आज के समय में एम.डी.एच मसालों की दुनिया में सबसे बड़ा ब्रांड है। इस ब्रांड को मसालों के मैन्यूफैक्चर, डिस्ट्रीब्यूटर और एक्सपोर्टर के तौर पर पहचाना जाता है।
व्यापार में सफ़लता की सीढ़ियां निरंतर चढ़ने वाली धरमपाल जी ने व्यक्तिगत जीवन में बहुत-सी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। उनकी धर्मपत्नी लीलावती, जिनका साथ उन्हें सन 1941 में उनसे शादी के बाद मिला था, सन 1992 में यह साथ हमेशा के लिए छूट गया। वे अपनी पत्नी के निधन के सदमें से उबरे भी नही थे कि मात्र दो माह की अवधि में उनके एकलौते पुत्र संजीव गुलाटी ने भी दुनिया को अलविदा कह दिया। महाश्य जी के परिवार में बेटें के अलावा छह बेटियां भी हैं। अपने जीवन के इतनी बड़ी क्षति से जूझते हुए भी महाशय धर्मपाल गुलाटी जी अपने कारोबार को नई ऊंचाईयों पहुंचाने में पूरी लगन के साथ लगे रहे। लेकिन 3 दिसंबर 2020 के दिन 98वें वर्ष की आयु में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।
महाश्य धरमपाल जी मात्र एक व्यापारी नही थे, बल्कि उन्हें एक समाजसेवी भी थे। एम.डी.एच मसालें की कमाई का एक बड़ा हिस्सा समाज कल्याण के कामों में लगाया जाता है। समाज सेवा के उद्देश्य से महाशय जी ने महाशय चुन्नी लाल चैरिटेबल ट्रस्ट की नींव रखी, जिसके तहत एक ऐसे अस्पताल निर्माण करवाया, जहाँ पर झोपड़-पट्टी में रहने वाले मुफ्त में इलाज करवा सकते हैं। इसके साथ ही कंपनी के लाभ से ही कई सारे स्कूल आदि का निर्माण भी समाज-सेवा के काम को पूरा करने के लिए किया गया। ट्रस्ट द्वारा समाज-सेवा के उद्देश्य से बहुत से सामाजिक संगठनों की भी आर्थिक रूप से मदद की जाती है।
उनके जीवन की उपलब्धियों को सराहते हुए उन्हें अपने जीवनकाल में बहुत-से पुरस्कारों से भी नवाजा गया। इसी श्रृंखला में व्यापार जगत में अपने अतुलनीय योगदान के लिए सन 2019 में भारत से तीसरे सबसे बड़ें नागरिक पुरस्कार पदमभूषण से भी नवाजा गया।
महाश्य धरमपाल जी की एक विशेषता यह भी थी कि वे जब तक जीवित थे, तब तक अपने उत्पादों के विज्ञापन का चेहरा स्वयं ही बने रहें। आज भी आलम यह कि उनको एम.डी.एच वाले बाबा के नाम से देश का हर बड़ा-छोटा नागरिक पहचानता है।
कहते इंसान में अगर सच्ची लगन और जीवन में कुछ बड़ा करने का हुनर मौजूद हो,तो उसके रास्तें में चाहे कितनी भी रूकावटें आ जायेवो उन सबको पार करके एक दिन अपनी मंजिल को ज़रूर पा लेता है। एक ऐसी ही प्रेरणा से भरी कहानी है महाशय धरमपाल गुलाटी जी की कहानी। जिन्होने अपने महाशय दी हट्टी यानी "एम.डी.एच." को देश-विदेश में मशहूर मसालों की दुनिया में एक अलग पहचान दी।
इनकी कहानी शुरू होती है, सन 1923 से जब सियालकोट, पाकिस्तान में पिता चुन्नी लाल और माता चनन देवी के घर में धरमपाल जी का जन्म हुआ। उनके परिवार में माता-पिता, दो भाई और पांच बहनें थी। उनके पिता एक कारोबारी थे। उनकी सियालकोट में सन 1919 के समय में खोली गई, मसालों की एक छोटी-सी मसाला कंपनी थी। एक दुकान इतनी-सी जगह पर खोली गई अपनी कंपनी में वे हाथ से पीस कर तैयार किए मसालें बेचा करते थे। उनकी कंपनी का नाम था, महाश्य दी हट्टी प्राइवेट लिमिटेड. देघी मिर्च वाले।
धरमपाल गुलाटी जी का मन शुरू से ही पढ़ाई में नही था, उन्होने बस पांचवीं तक ही पढ़ाई की। दस साल की छोटी-सी आयु में ही वे अपने पिता का हाथ उनके कारोबार में बंटाने लगे थे। पढ़ाई छोड़ने के बाद उन्होने कई तरह के कारोबार में हाथ आजमाए, साथ ही छोटी-मोटी नौकरियां भी की। उन्होने भले ही पढ़ाई नही की, लेकिन व्यापार के बारे में अपनी समझ को समय के साथ इतना परिपक्व कर लिया कि आख़िरकार उनके पैर व्यापार में जमने लगें।
लेकिन सन 1947 के बंटवारें ने बहुत से लोगों की तरह इनकी दुनिया को भी पूरी तरह से उजाड़ दिया। उन्हें अपने पूरे परिवार के साथ सियालकोट छोड़ कर अमृतसर में एक रिफ्यूजी कैंप में अपने दिन ग़ुजारने पड़ें। उस समय उन्होने काम की तलाश में अपने जीजा के साथ दिल्ली का रूख़ किया। यहां भी उनके लिए ज़िंदगी आसान नही थी। अमृतसर से चलते समय उनके पिता ने उन्हें पन्द्रह सौं रूपयें दिए थे, उसी पैसों से उन्होने दिल्ली में एक तांगा ख़रीदा। वे उस तांगे पर कनॉट प्लेस से करोल बाग तक सवारियां लाते ले जाते थे। लेकिन यह काम उन्हें रास नही आया, और उन्होने करोल बाग में एक छोटी-सी झोपड़ी में अपने पुराने पुश्तैनी काम की फिर से शुरूआत की, यह 1948 का समय था, व्यापार की अच्छी समझ ने अपना कमाल दिखाया और व्यापार चल निकला। व्यापार आगे बढ़ाते हुए सन 1953 में उन्होने करोल बाग़ में एक दुकान किराए पर ले ली। उसके एक साल बाद, यानी सन 1954 में, उन्होने भारत के पहले आधुनिक मसाला स्टोर की नींव रखी, जिसका नाम था, रूपक स्टोर्स।
बाद में उन्होने रूपक स्टोर्स का काम अपने भाई सतपाल गुलाटी जी को सौंप दिया। सन 1959 में, उन्होने अपनी मसाला फैक्टरी की नींव रखी, जिसका नाम एम.डी.एच (महाश्य दी हट्टी) लिमिटेड रखा गया। उनकी मेहनत और व्यापार की अच्छी समझ के दम पर काम दिन दुनी रात चौगनी तरक्की करने लगा। जल्दी ही एमडीएच के मसालें भारत ही नही स्विट्ज़रलैंडस अमेरिका, जापान, कनाडा, यूरोप साउथ ईस्ट एशिया यू.ए.ई, साउदी अरब के साथ सौं से भी अधिक देशों में निर्यात किए जाने लगे। आज के समय में एम.डी.एच मसालों की दुनिया में सबसे बड़ा ब्रांड है। इस ब्रांड को मसालों के मैन्यूफैक्चर, डिस्ट्रीब्यूटर और एक्सपोर्टर के तौर पर पहचाना जाता है।
व्यापार में सफ़लता की सीढ़ियां निरंतर चढ़ने वाले धरमपाल जी को व्यक्तिगत जीवन में बहुत-सी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। उनकी धर्मपत्नी लीलावती, जिनका साथ उन्हें सन 1941 में उनसे शादी के बाद मिला था, सन 1992 में यह साथ हमेशा के लिए छूट गया। वे अपनी पत्नी के निधन के सदमें से उबरे भी नही थे कि मात्र दो माह की अवधि में उनके एकलौते पुत्र संजीव गुलाटी ने भी दुनिया को अलविदा कह दिया। महाश्य जी के परिवार में बेटें के अलावा छह बेटियां भी हैं। अपने जीवन की इतनी बड़ी क्षति से जूझते हुए भी महाशय धर्मपाल गुलाटी जी अपने कारोबार को नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने में पूरी लगन के साथ लगे रहे। लेकिन 3 दिसंबर 2020 के दिन 98वें वर्ष की आयु में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।
महाश्य धरमपाल जी मात्र एक व्यापारी नही थे, बल्कि एक समाजसेवी भी थे। एम.डी.एच मसालें की कमाई का एक बड़ा हिस्सा समाज कल्याण के कामों में लगाया जाता है। समाज सेवा के उद्देश्य से महाशय जी ने महाशय चुन्नी लाल चैरिटेबल ट्रस्ट की नींव रखी, जिसके तहत एक ऐसे अस्पताल का निर्माण करवाया, जहाँ पर झोपड़-पट्टी में रहने वाले मुफ्त में इलाज करवा सकते हैं। इसके साथ ही कंपनी के लाभ से ही कई सारे स्कूल आदि का निर्माण भी समाज-सेवा के काम को पूरा करने के लिए किया गया। ट्रस्ट द्वारा समाज-सेवा के उद्देश्य से बहुत से सामाजिक संगठनों की भी आर्थिक रूप से मदद की जाती है।
उनके जीवन की उपलब्धियों को सराहते हुए उन्हें अपने जीवनकाल में बहुत-से पुरस्कारों से भी नवाजा गया। इसी श्रृंखला में व्यापार जगत में अपने अतुलनीय योगदान के लिए सन 2019 में, भारत से तीसरे सबसे बड़ें नागरिक पुरस्कार पदमभूषण से भी नवाज़ा गया।
महाश्य धरमपाल जी की एक विशेषता यह भी थी कि वे जब तक जीवित थे, तब तक अपने उत्पादों के विज्ञापन का चेहरा स्वयं ही बने रहें। आज भी आलम यह कि उनको एम.डी.एच वाले बाबा के नाम से देश का हर बड़ा-छोटा नागरिक पहचानता है।