बेगम अख़्तर: हिन्दुस्तान की मल्लिका-ए-ग़ज़ल

तवायफ़ की बेटी होने के कारण कई सालों तक अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी को भी लोग तवायफ़ समझते रहे। लेकिन, उनकी माँ मुश्तरीबाई ने कभी अपनी बेटी अख़्तरी उस रास्ते नहीं भेजा। वे तो गायकी की दुनिया से भी दूर रखना चाहती थी। लेकिन, होना कुछ और ही था। अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी, अपनी आवाज़ और गायकी से हिन्दुस्तान की मल्लिका-ए-ग़ज़ल कहलाई।
मुश्तरीबाई अपनी बिब्बी के साथ: चित्र साभार - विदुषी शांति हीरानंद/http://ignca.gov.in/

मुश्तरीबाई अपनी बिब्बी के साथ: चित्र साभार - विदुषी शांति हीरानंद/http://ignca.gov.in/

इसी बीच, 13 की उम्र तक आते आते बिब्बी की शोहरत फूल की खुशबू की मानिंद आसपास फैलने लगी। बिब्बी, अब अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी के नाम से जानी जाती थी। उसी समय बिहार के एक राजा ने अख़्तरीबाई को गाने के लिए बुलाया। नीयत में खोट लिए वह राजा अख़्तरीबाई पर लकड़बग्गे की तरह झपटा और मासूम-मन पर ज़िन्दगी भर के ज़ख्म दे गया। अख़्तरीबाई ने अबोध उम्र में ही एक अबोध बच्ची शमीमा को जन्म दिया। अख़्तरीबाई, सन्नो (शमीमा) को ता-उम्र बहन कहकर पुकारती रही। यह बात बहुत सालों बाद मालूम चली की शमीमा, अख़्तरीबाई की बहन नहीं, बेटी थी। बहरहाल, घाव भले भर जाए पर निशान कभी नहीं छुपते। शायद, इतनी कम उम्र में सांप का डंक झेलने वाली अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी की आवाज़ ने उस ज़हर को भी मीठे सुरों में बदल दिया। लेकिन, आवाज़ से दर्द नहीं गया। दोनों का मिश्रण ऐसा बना कि सुनने वाले रात-रात भर तक अख़्तरीबाई को सुनते रहते।

तवायफ़ मुश्तरीबाई के प्यार में पड़े असग़र हुसैन से उनके दो बेटियाँ हुई - अनवरी और अख़्तरी, जिन्हें प्यार से ज़ोहरा और बिब्बी कहकर बुलाया जाता था। लेकिन, बेटियाँ होने के तुरंत बाद ही, असग़र हुसैन ने अपनी दूसरी बीवी यानी मुश्तरीबाई को छोड़ दिया। उस मुश्किल घड़ी में मुश्तरीबाई को अपनी दोनों बेटियों के साथ संघर्ष करना पड़ा।

मासूम-जान, जब चार बरस की हुई तो कहीं से ज़हरीली मिठाई खा ली, जिससे दोनों की तबियत ख़राब हो गई। दोनों को अस्पताल ले जाना पड़ा, जहाँ ज़ोहरा ने दम तोड़ दिया। लेकिन, बिब्बी जैसे-तैसे बच गई। बिब्बी बड़ी हो रही थी। माँ के गुण बिब्बी में भी दिखने लगे थे। कंठ में सरस्वती थी, यह बात मुश्तरीबाई जानती थी - लेकिन, वे नहीं चाहती थी कि बिब्बी वह रास्ता चुने। शरारती बिब्बी को पढ़ने भेजा तो उसने मास्टरजी की चोटी काट दी।

छोटी पौध की बढ़त जल्दी नज़र आती है। बिब्बी 7 बरस की हो चुकी थी। उसका मन गीतों में रमने लगा था। एक रोज़ बिब्बी के स्कूल एंजेलिना योवर्ड का दौरा हुआ। इत्तिफ़ाक़न, वे बिब्बी की ही कक्षा में पहुँची। बिब्बी पहचान गई और हाथ पकड़ कर बोली, "आप गौहर जान हैं न? आप भी ठुमरी गाती हैं न?" - एंजेलिना योवर्ड उर्फ़ गौहर जान बोलीं, "क्या तुम भी गाती हो?" फ़रमाइश पर बिब्बी ने ख़ुसरो का कलाम गा दिया। कलाम सुनते ही गौहर खान बोल पड़ी, "इसे तालीम क्यों नहीं दिलवा रहे? तालीम मिली तो एक दिन जरूर यह मल्लिका-ए-ग़ज़ल बनेगी।" थक हार कर मुश्तरीबाई ने छोटी-सी बिब्बी को तालीम के लिए बड़े-बड़े उस्तादों के पास भेजना शुरू कर दिया। उम्र के साथ साथ वह फ़न का ज़ीना भी चढ़ने लगी। मोहम्मद अता खां बिब्बी के गुरु बने। उन्होंने बिब्बी को वह सबकुछ सिखाया जो एक गुरु अपने प्रिय चेले को सिखाता है। बिब्बी को शास्त्रीय संगीत पसंद नहीं था। लेकिन, उस्ताद डांट-डपटकर सिखाने की कोशिश करते थे। इससे परेशान होकर एक दिन बिब्बी उस्ताद को छोड़ आई। लेकिन, जल्दी ही गुरु की कमी खलने लगी और दुबारा उनके पास चली गई और अधूरी तालीम पूरी करने में जुट गई।

अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी शादी के बाद बेगम अख़्तर हो गईं। शौहर ने गाने के लिए मना कर दिया तो गृहस्थी संभाल ली। सबकुछ होने पर भी, बेगम अख़्तर बीमार रहने लगी। अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए वे खूब सिगरेट और शराब पीती थी। लेकिन, मर्ज़ कुछ और थी। डॉक्टर-हकीम को दिखाने पर पता चला कि बीमारी शरीर की नहीं, मन की है। अपनी पहली मोहब्बत से बिछड़ने का ग़म बेगम अख़्तर झेल नहीं पा रही थीं। आख़िरकार, पाँच साल के लंबे अंतराल के बाद, उन्होंने दुबारा गायकी को छुआ। ऐसे कितने ही क़िस्से और भी रहे हैं उस मल्लिका-ए-ग़ज़ल के। क़िस्से तब तक ख़त्म नहीं होते जब तक ज़िंदगी ख़त्म नहीं हो जाती। बेगम अख़्तर के क़िस्से भी 1974 तक चलते रहे। अहमदाबाद में, एक शो के दौरान गाते-गाते बेगम अख़्तर की तबियत ख़राब हो गई। उन्हें अस्पताल ले जाया गया। लेकिन, उनका जिस्म फिर नहीं लौटा। हाँ... उनकी आवाज़ ज़रूर हर रात लौटती है। किसी सुनसान गली में, मोहब्बत में डूबे आशिक़ों, टूटे दिलों तक - किसी नदी के किनारे को खोजती हुई, रिसते आँसुओं के रूप में... किसी अटरिया पर, किसी के इंतज़ार में, उसका साथ देती हुई।

बहुत सालों के बाद की घटना है। जब बनारस में गंगा-जमुना तहज़ीब अपने चरम पर थी। बड़े-बड़े उस्तादों का जमावड़ा बनारस में लगा रहता था। एक रात, जब पूरा बनारस सो चुका था। कहीं दूर से, रात की ठंडी हवा में एक आवाज़ बहती हुई गंगा किनारे पहुँच रही थी। उस आवाज़ को सुन, दालान में चारपाई डाले सो रहे बिस्मिल्लाह खां उठ खड़े हुए। उनके पास सो रही उनकी पत्नी भी, इस घटना से घबराई, अचानक उठ खड़ी हुई और पूछा, " क्या हुआ? सब ठीक तो है?” बिस्मिल्लाह खां बोले, "शशश्श... ध्यान से सुन, बेगम अख़्तर गा रही है।" यह सुन उनकी पत्नी माथा पीट कर वापस सो गई - लेकिन, बिस्मिल्लाह खां, जब तक आवाज़ आती रही, बैठकर सुनते रहे।

बेगम अख़्तर: चित्र साभार - विदुषी शांति हीरानंद/http://ignca.gov.in/

बेगम अख़्तर: चित्र साभार - विदुषी शांति हीरानंद/http://ignca.gov.in/

अख्तरीबाई फ़िल्म ‘रोटी’ में: चित्र साभार - pinterest/thequint

अख्तरीबाई फ़िल्म ‘रोटी’ में: चित्र साभार - pinterest/thequint

सलीम किदवई की लेंस से बेगम अख़्तर: चित्र साभार - सलीम किदवई/http://ignca.gov.in/

सलीम किदवई की लेंस से बेगम अख़्तर: चित्र साभार - सलीम किदवई/http://ignca.gov.in/

अख्तरीबाई फ़ैज़ाबादी: चित्र साभार - frontline.thehindu.com

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