700 साल पुरानी फड़ चित्रकला और उसकी कहानी कहते भोपा-भोपी

फड़ चित्रकला राजस्थान के भीलवाड़ा शहर से निकली एक लोक कला है. यह धर्म से भी जुड़ी है और मर्म से भी. रात भर चलने वाला यह प्रदर्शन आज सीमित हो गया है लेकिन, जोशी परिवार ने प्रतिकूल समय में भी इस ख़ूबसूरत परंपरा को बचाए रखा है.
फड़ पर रासलीला का चित्रण: चित्र साभार - scroll.in

फड़ पर रासलीला का चित्रण: चित्र साभार - scroll.in

विश्व में हर जगह की लोक कलाएँ कहानियों का अथाह समंदर हैं. वे समय के साथ बहती हुई न सिर्फ़ पिछले वक़्त की ज़िन्दगी के राज़ खोलती हैं बल्कि वर्तमान को भी अपने अन्दर समेटती जाती हैं. शायद, इसी वजह से, वे लोक कलाएँ लंबे समय से अस्तित्व में बनी रही हैं. राजस्थान में फड़ ऐसी ही एक लोक कला है, जो आज विश्वपटल पर काफ़ी सराही जा रही है.

लगभग 700 साल पुरानी यह लोक चित्र शैली, स्थानीय देवी - देवताओं की धार्मिक कहानियों का सामान्यतः 5 मीटर लंबे - डेढ़ मीटर चौड़े (पाबूजी की फड़ पेंटिंग 13 हाथ लंबी और देवनारायण की लगभग 30 फीट लंबी.) कपड़े पर वर्णन करती है, जिन्हें एक समय चलते-फिरते मंदिरों के रूप में इस्तेमाल किया जाता था. इन पर उकेरे गए चित्रों को रेबारी जनजाति के भोपा-भोपी द्वारा गाया जाता था. वे लोक-देवता देवनारायण जी (विष्णु का रूप) और पाबूजी (एक लोक-नायक) की गाथा गाते हुए गाँव-गाँव प्रदर्शन करते थे. फड़ को सूर्यास्त के बाद ही खोला जाता था. और रात भर ग्रामीणों के सामने प्रदर्शन चलता रहता था. भोपा रावणहत्था बजाते हुए फड़ को गाकर सुनाते थे. भोपी नाच के द्वारा कहानी को आगे बढ़ाती थी और जब जिस भाग का ज़िक्र आता उस जगह एक दीपक का इस्तेमाल करके प्रकाश डालती थी.

फड़ कला की एक दिलचस्प बात यह है कि ऐतिहासिक रूप से यह केवल जोशी परिवार के सदस्यों द्वारा ही बनाई जाती है, जो कि छीपा जाति है. भोपा, जोशी परिवार को, प्रदर्शन में इस्तेमाल होने वाली फड़ को बनाने के लिए नियुक्त करते थे.

फड़ बनाने की पूरी प्रक्रिया पूरे रीति-रिवाजों और परंपराओं के साथ पूरी होती है. पुराने समय में, फड़ पर पहला ब्रश परिवार की कोई कुंवारी लड़की द्वारा ही लगाया जाता था. उसके बाद ही चित्रकार कहानी के मुताबिक़ फड़ को अलग-अलग वर्गों में बांटता था. लेकिन, फड़ पेंटिंग की तकनीक हर किसी को नहीं सिखाई जाती थी. केवल उन्हें ही सीखने का अधिकार था जो जोशी परिवार को न छोड़े. इसलिए, कभी भी बेटियों को यह कला नहीं सिखाई गयी, जबकि बहुओं को, जो परिवार का हिस्सा बन चुकी होती हैं, को सिखाई जाती थी.

चूँकि, फड़ चित्रों का सार कहानी सुनाना था. इसलिए बदलते ज़माने के साथ जोशी परिवार के कल्याणजी जोशी ने कई प्रयोग किये. उन्होंने फड़ में देवनारायणजी और पाबूजी के अलावा अन्य पात्रों को भी चित्रित करना शुरू किया. इसके अलावा रामायण, महाभारत, हनुमान चालीसा और यहाँ तक कि पंचतंत्र की कहानियों और उनके पात्रों को भी फड़ के माध्यम से पेश किया. जिसकी वजह से आज फड़ ज़्यादा लोगों तक पहुँचने में सफल रही है. जहाँ रात भर चलने वाले प्रदर्शन के दौरान कई अलग-अलग कहानियाँ शामिल होती थीं, आज समय की कमी के कारण उन्हें देख पाना संभव नहीं है न ही इतने बड़े फड़ की उपयोगिता बची है. इसलिए कल्याण जी जोशी ने लघु-कथाओं को फड़ पर लाना शुरू कर दिया, जो काफ़ी सफल रहा. क्योंकि, समय के साथ घर भी छोटे होते चले गए. इसलिए, फड़ - जो अब नये स्वरुप में सामने आने लगी है उन्होंने आधुनिक घरों की दीवारों पर भी अपनी जगह बना सकने में कामयाबी हासिल की है.

आज, जबकि कुछ गांवों में अभी भी भोपाओं की कहानी कहने की परंपरा जीवित है, श्री लाल जोशी, नंद किशोर जोशी, शांति लाल जोशी सहित जोशी परिवार के कई सदस्यों जिनमें कल्याण जोशी, गोपाल जोशी, प्रकाश जोशी और विजय जोशी भी शामिल हैं, के द्वारा किए गए प्रयासों की वजह से फड़ चित्रों का कैनवास बढ़ा है और उसे कला के रूप में सराहना मिलने लगी है. लेकिन, एक हक़ीक़त यह भी है कि, इन प्रयासों के बावजूद, बीस से भी कम कलाकार हैं जो आज पूरे समय फड़ पेंटिंग की कला का अभ्यास कर रहे हैं. वर्तमान की कल्पना अतीत के बिना अधूरी है. आज अतीत की ऐसी ही समृद्ध कलाओं, परंपराओं को जानने और समझने की ज़रूरत है, न कि उन्हें समय की धूल में भुला देने की. लोक से जुड़ना, ज़मीन से जुड़े रहना भी है - यह भी एक रास्ता है जानने का कि आख़िर हम कौन हैं?

फड़ पर रामायण का चित्रण: चित्र साभार - scroll.in

फड़ पर रामायण का चित्रण: चित्र साभार - scroll.in

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