कोली जाति: अदम्य वीरता और साहस की कहानी

हमारे भारत में कुछ ऐसी जातियां भी हैं जो इतिहास में अपनी अदम्य वीरता और साहस की स्वर्णिम छाप छोड़कर गई हैं। आज हम आपको अदम्य साहस और वीरता का परिचय देने वाले कोली जाति की कहानी बताने वाले हैं जिन्होंने अपने मजबूत इरादों के बल पर मुगलों और अंग्रेजों से लोहा लिया और हमारे स्वर्णिम इतिहास में अपनी जगह बनाई।
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कोली जाति | स्रोत् : विकीपीडिया

कोली जाति भारतीय इतिहास में ऐसी जाति हैं जिसने अपने मजबूत इरादों के दम पर औरंगजेब और अंग्रेजों से लोहा लिया। छत्रपति शिवाजी महाराज के लक्ष्यों को पूरा करने में इस जाति के महान पुरुषों का विशेष योगदान रहा है। मुगलों के साथ युद्ध में हारे लेकिन इनकी पीढ़ियों ने आजीवन मुगलों के नाक में दम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मुगलों को लूटा और मुगलों के पसंदीदा बाशिंदों को मौत के घाट भी उतारा। सर कटा दिए लेकिन युद्ध के मैदान में मुगलों के सामने सर नहीं झुकाया। जितने भी लोग इनके अदम्य साहस की कहानी को जानेंगे तो इन्हें कोली जाति के लोगों पर जरुर गर्व होगा। जहां एक ओर बड़े-बड़े राजा-महाराजा अंग्रेजों के संधि कर अपना उल्लू सीधा कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर कोली एक ऐसी जाति थी, जो शुरु से लेकर अंत तक अंग्रेजों के खिलाफ डटकर खड़ी रही थी। लेकिन सबसे पहले इस जाति की उत्पत्ति के बारें में जानते हैं।

हमारे भारत के महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश ,दिल्ली में इस जाति के लोग मिल जाते हैं। लेकिन इस जाति का इतिहास पश्चिम भारत से लेकर दक्षिण भारत तक फैला है। इतिहासकारों के अनुसार इस जाति के लोग वैसे तो क्षत्रिय थे लेकिन सामाजिक परिस्थितियों, युद्ध के हालातों के कारण इन्होंने जुलाहा, किसान और मछवारे का भी कार्य किया। विशेषकर गुजरात और महाराष्ट्र तटीय क्षेत्रों में इन्होंने मछवारों का कार्य किया।

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कोली महिला | स्रोत् : विकीपीडिया

कबीर के एक दोहे में इस जाति के जुलाहा होने का प्रमाण भी मिलता है-

ज्यों को रोजा बुनै, नीरा आवै छोर ।

ऐसी लिखा मीच का, दौरि सकै तो दौर ।।

इस दोहे में कोरी समाज का उल्लेख किया गया है जिसका अर्थ है जिस प्रकार कोरी धागे की चरखा चलाकर एक एक सूत पिरो कर कपडा बुनता है। पुरातन काल में भारत में रहने वाले लोग अपने शरीर पर जो कपड़ा पहनते थे, उसे बुनने का काम हिंदू जुलाहा और कोरी जाति के लोग करते थे, जिन्हें कबीरपंथी समाज भी कहा गया है। लेकिन प्रश्न ये उठता है कि कबीरदास का जन्म 1398 के आस-पास हुआ था यानी जिससे पता चलता है कि इस जाति का अस्तित्व 500 साल पूराना हो सकता है। उस समय ये लोग समाज में जुलाहा का कार्य करते होंगे। इस जाति के लोग अपना अस्तित्व बहुत पुराना बताते हैं। ये अपनी उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा मांधात से मानते हैं। ये वही वंश है जिसके वंशज भगवान राम रह चुके हैं और आगे चलकर इसी वंश का संबध महात्मा बुद्ध से रहा है।

कोली जाति के लोग राजा मांधाता को अपना इष्टदेव मानते हैं। इनके गौरवशाली इतिहास की बात करें तो मुगल शासक औरंगजेब जिसकी दहशत भारत के हर कोने-कोने में हुआ करती थी, उससे लोहा लेने का दम-खम कोली जाति के लोगों में भरपूर था। गुजरात में मुस्लिम शासन के दौरान कोली जाति के लोग जमींदार थे। मुस्लिम उस समय बहुत ही ताकतवर हुआ करते थे, ये जानते हुए भी ये पीछे नहीं हटे। इनके अदम्य साहस का परिचय 1615 की लड़ाई में मिलता है। जब कोली जमींदारों का नेतृत्व लाल कोली ठाकुर कर रहे थे जबकि मुगलों की सेना का नेतृत्व अब्दुल्ला खां कर रहे थे। लेकिन उन्नत सेना और शस्त्र बल के लिहाज से मुगलों का जीतना संभव था। लेकिन इसके बावजूद भी लाल कोली ठाकुर ने मुगलों को कांटे की टक्कर दी। मुगलों को लाल कोली ठाकुर से इतना बैर था कि इनको मौत के घाट उतारने के बाद उनके कटे हुए सिर को अहमदाबाद के दरवाजे पर टांग दिया।

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जेम्स फोबर्स द्वारा बनाया गया दहेवान के कोली सरदार का चित्र | स्रोत् : विकीपीडिया

इतिहास गवाह रहा है जिस जाबाँज ने भी मुगलों का जीना हराम किया, मुगलों ने उसके शव के साथ भी बर्बरता दिखाई है। लेकिन जाति के लोग मुगलों को सताने का मौका कभी नहीं छोड़ते थे, वे मुगलों को लूटा करते थे और उन पर समय-समय पर हमला भी किया करते थे। औरंगजेब के समय पर कोली जात की दहशत बहुत हुआ करती थी। कोली लोग लूट-पाट शुक्रवार के दिन किया करते थे। इस लूट-पाट को रोकने के लिए औरंगजेब ने 1665 में एक फरमान जारी किया की शुक्रवार के दिन सभी हिन्दू और जैन पूरी रात अपनी दुकानें खुली रखेंगे ताकि कोली जाती के लोगो का ध्यान उनको लूटने में जाए, लेकिन कोली जाति के लोगों ने हिंदू और जैन धर्म के लोगों को नहीं लूटा। सन् 1657 में कोली जाति के खेमी सरनाई और औरंगजेब की सेना के बीच युद्ध हुआ। लेकिन खेमी सरनाई भी इस युद्ध में वीरगाति को प्राप्त हुई। औरंगजेब अपनी क्रूरता के लिए जाना जाता था। उसने इस युद्ध में शामिल होने वाले वीरों के बीवी और बच्चों का नरसंहार कर दिया।

जहांगीर के काल में भी कोली जाति ने युद्ध छेड़ा। इनके खेड़ा के गर्वनर कासिम अली की भी हत्या की। इसके अलावा अंग्रेजों को छठी का दूध दिलाने में इनका कोई जवाब नहीं था। 1830 मे कोली जागीरदारों ने उत्तर गुजरात अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठाए। कोली जागीरदारों को ठाकोर साहेब के नाम से जाना जाता था। अंब्लियारा जागीर की कोली रानी ने अंग्रेज़ो से कई सालों तक कड़ी टक्कर ली थी। लेकिन कोली जागीरदारों के विद्रोह को दबाने के लिए ग्वालियर रियासत और बड़ौदा रियासत के महाराजाओं ने अंग्रेजों का पूरा साथ दिया। लेकिन 1857 में फिर से कोली जाती के लोगों ने कोली जागीरदारों के नेतृत्व में फिर से हथियार उठा लिए थे। अंग्रेजों को भी इन्होंने खूब परेशान किया, इनकी जेल तक को लूटा।

अंतत: कोली जाति के लोगों से हमें यही संदेश मिलता है कि दुश्मन के आगे कभी भी घुटने नहीं टेक देने चाहिए। जीवन में बड़ी से बड़ी विकट परिस्थिति क्यों न खड़ी हो, उसका सामना करें। जीत या हार की चिंता न करें क्योंकि इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से उन्हीं वीरों का नाम लिखा जाता हैं जो ताकतवर शत्रु का सामना करते हैं।

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