मोनपा जनजाति: हिमालय क्षेत्र की परम्पराएं,रीति-रिवाज और मान्यताओं की कहानी

हमारे भारत के हिमालयी क्षेत्रों में ऐसे बहुत-सी जनजातियां बसी हुई हैं जिनके रीति-रिवाज, मान्यताएं  और संघर्षमय जीवनशैली पूरी दुनिया के लिए आकर्षक का केंद्र बिंदु हैं। आइए जानते है अरुणाचल प्रदेश की मोनपा जनजाति की कहानी जिनकी हिमालयी जीवनशैली और परम्परा पर एक फिल्म भी बनी थी।
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मोनपा जनजाति। स्रोत : विकीपीडिया

भारत के हिमालयी क्षेत्र में ऐसे बहुत-से गहन राज़ दफन है जिनके बारें में अगर हम जानने का प्रयास करें तो इनकी कुछ ऐसी परम्परांए है जिनको जानकर आप हैरत में पड़ सकते है। बिल्कुल, अगर आप भारत की रहस्मय संस्कृति के बारें में जानने के लिए बेहद उत्सुक रहते है तो हिमालय क्षेत्रों की यात्रा अवश्य करें जिससे आप यह जान सकें कि यहां रहने वाले जनजाति किस परम्परा,संस्कृति,जीवनशैली को अपनाती हैं जो इन्हें पूरी दुनिया से एकदम अलग बनाती हैं। आज अरुणाचल प्रदेश की हिमालय में बसने वाली मोनपा जनजाति की कहानी आपको बताते है जिसे लेकर वॉटर ब्यूरियल नामक एक फिल्म भी बनी थी जिसमें मोनपा जनजाति की अनोखी परम्परा के बारें में जिसका संबध मृत शरीर, मानवता और पर्यावरण प्रेम से हैं। इस फिल्म को 67वें राष्ट्रीय फिल्म अवार्ड में पर्यावरण संरक्षण श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला था। हमारा अरुणाचल प्रदेश ऐसी बहुत सारी रहस्मय जनजाति से भरपूर हैं जिन्हें देखने हेतु देश हो या विदेश हर जगह से पर्यटक देखने आते हैं। अरुणाचल प्रदेश की मोनपा जनजाति तवांग और पश्चिम कामेंग जिले में बसी है। इस जनजाति की जीवनशैली को ब्लॉगिंग के माध्यम से भी सोशल मीडिया पर दर्शाया जा रहा है जिससे इस संस्कृति के रहस्य को लोगों तक पहुंचाया जा सकें। इस जनजाति का संबंध  भूटान के रहने वाले शारचोप्स जाति से संबध है।

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वॉटर ब्यूरियल फिल्म। स्रोत : इंडिया टीवी टुडे

इस जनजाति के अनोखे रीति रिवाज की कहानी ब्यां करें तो दाह संस्कार करने की प्रथा थोड़ी अलग है जो लोगों को इनके बारें में जानने उत्सुक करती हैं। इस अनोखे रीति-रिवाज को फिल्म वॉटर ब्यूरियल में भी बताया गया है। ये लोग मृत शरीर के 108 टुकड़े करके उसे पानी में बहा देते है। लोक मान्यता के अनुसार 108 टुकड़े करने का कारण यह है कि ये लोग बौद्ध धर्म पर विश्वास करते हैं और बौद्ध धर्म की माला में 108 मनके है जो एक आध्यात्मिकता का प्रतीक है। मृत शरीर के 108 टुकड़ों को पानी में बहा दिया जाता हैं जिसका उद्देश्य मानवता, सद्भावना और पर्यावरण प्रेम का प्रतीक है। इस परम्परा के माध्यम से ये लोगों के समक्ष ये संदेश दिया जाता हैं कि मरने के बाद कोई भी इंसान इस पर्यावरण के जीव-जंतु के काम कर सकता हैं। इसके अलावा दाह संस्कार के लिए दफना और जला भी सकते है। ये परम्परा जानकर कहीं न कहीं आप लोग दंग हो गए हो भारत का एक हिस्सा ऐसा भी है जहां मृत शरीर की दाह संस्कार की प्रणाली और धर्मों से अलग है।

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मोनपा जनजाति। स्रोत : विकीपीडिया

इनके जीवनयापन की बात करें तो मोनपा स्थानान्तरित खेती करते हैं। भैंस, याक, गाय, सूअर, भेड़ और भालू को पालतू जानवरों के रूप में रखा जाता है। अरुणाचल प्रदेश की दुर्गम पहाड़ियों में रहने वाले मोनपा बिना किसी संसाधन के एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखते है।गहरे घाटों पर मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए मोनपा ने कई चट्टानों पर चट्टानें बनाई हैं, जिसमें काफी शारीरिक बल की आवश्यकता होती है। मोनपा जनजाति के घर लकड़ी और पत्थरों से बनाए जाते हैं। ये लोग छत को बनाने के लिए बांस की चटाई का उपयोग करते है।  मोनपा पुरुष तिब्बती चुग्बा पहनते हैं। ये लोग टोपी के साथ पतलून और कोट भी पहनते हैं। पुरुषों की शर्ट को एंडी कहा जाता है। इनका पहनावा तिब्बती समाज से काफी मिलता जुलता है।  इस जनजाति की महिलाएं लंबी लंबाई वाली स्लीवलेस क़मीज़ और गर्म जैकेट पहनती हैं। वे लाल रंग का गाउन पहनती हैं जिसे शिंगका कहा जाता है। ये महिलांए बांस से बने गहने पहनती हैं जिन्हें मोतियों से सजाया जाता हैं।

अंतत: कहा जा सकता है कि इस जनजाति के अनोखे तौर-तरीके इसे पूरी दुनिया में खास बनाती है और समाज को ये संदेश भी देती है कि दुर्गम परिस्थितियों में भी जीवन को कैसे जीना चाहिए? और पर्यावरण के प्रति समर्पण, आध्यात्मिकता  और वेशभूषा को आधुनिक समय में भी कैसे बनाए रखना है?

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